क्यों सहिष्णुता के मोती
क्यों गगन का नीलापन ये
क्यों अमन के ये साथी
और प्यार के वे पाती
धुंधलके में खो रहे हैं ?
कल के वे रंगीन सपने
वे दिल-अजीज़ अपने
पराये क्यों हो रहे हैं?
वो भावना क्यों खो रही है?
आपस में लिपटी जैतून की
दो पत्तियाँ दो पत्तियाँ क्यों रो रही हैं?
रूक-रूक के गगन में उठता
और धुएँ का कालापन
सपने सबके लील जाता?
उद्विग्न छाती चीर जाती
प्रतिशोध की वो अग्नि-लौ
केवल मृत्यु को बुलाती
हाथ वो न कॉप जाते
क्यों न होती नम वो आखें
क्यों न थमती क्रूर साँसे?
सैकड़ों की जान लेता
औ’ सुनहला दिन वो सारा
गम विरह में बीत जाता?
त्रास और भय से गुजारी
और जीने की आस सारी
दुखित मन ने छोड़ डाली?
दिल तो है चाहता
पर होठ थरथराता
औ’ दुख के मारे वाक्-तंतु फट सा जाता?
पिरोता पर टूट जाते
हाय क्यों ऐसा ये होता?
दिल एक मानव का है रोता
जिजिविषा चीत्कार करती
क्यों न दूसरा ह्रदय फिर
दुःख समझता, दुःख को हारता?
सबको दिखाती, सबको रुलाती
मनुजता कमज़ोर पड़कर
जाने कहा छुप-छुपाती?
कभी गाँधी टेरेसा बनकर
और जब वो पाँव धरती
युग बदलती!
और सबके कष्ट हरती
सुख अमन फिर फ़ैल जाता
प्यार का फिर गुल खिलाती!
हाँ परस्पर लिपट जातीं
दुःख पुराने भूलकर
उस मिलन में खो सी जातीं|
- सुमित प्रणव
(1 अक्टूबर 2000)
यह कविता मैंने १० वर्ष पूर्व लिखी थी, परन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में भी यह उतनी ही प्रासंगिक है !